काम की तलाश में निकले थे घर से,
अपने सपनो को बदलने हकीकत में,
किसी को बूढ़े माँ-बाप का इलाज करना था,
तो किसी को खर्च करना था बहन की शादी में,
सपनो की पोटली बांधकर, बड़ो के पैर छुकर,
वो तो निकले थे अपनी मंजिल की तलाश में,
पर नियति के लिखे को कौन पढ़े,
मौत खड़ी थी फैलाएं बाहें उस रेल की छत में,
एक ही पल में उस पुल से टकराकर सारे सपने हो गए चूर,
जो कल अपनी माँ की बाहोँ में होते, चले गए उनसे बहुत दूर,
प्रश्न है की? इन मौतो का जिम्मेदार कौन?
क्यो है ये नौकरशाही चुप, क्यो है ये भ्रष्ट सरकार मौन?
कोई गलत नहीं है, गलत है हम.
सबक लो मिश्र की सड़को से, जनशक्ति में दिखेगा दम,
उखाड़ फेंको उस शासन को जिनके पास जनसाधारण की कोई कीमत नहीं,
नौकरी के नाम पर मौत बांटते है, क्या देखा है ऐसा बेशर्म कही.
its an beautiful row I like it
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